1. मालती के घर का आँगन सूना सूना था। मानों उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो। उसके वातावरण में कुछ ऐसा अंकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय घना सा सन्नाटा फैल रहा था। मालती का घर यंत्रवत चलता था। उसमें आनन्द नहीं था। समय की पाबंदी का पालन मात्र होता था। जीवन नीरस हो गया था। एक विवाहित स्त्री अभाव में घुटती जा रही थी। उसका जीवन त्रासदी भरा हो गया था।
2. ‘रोज’ शीर्षक कहानी के रचयिता अज्ञेय हैं। मालती इस कहानी की नायिका है। उसके पति का नाम महेश्वर है। वह पहाड़ी गाँव की सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर है। वे प्रातः सात बजे डिस्पेंसरी जाते हैं। दोपहर दो बजे वापस आते हैं। फिर एक-दो घंटे के लिए शाम में रोगियों के लिए हिदायतें देने जाते हैं। महेश्वर अन्यमनस्क होकर अपना काम करते हैं। अक्सर गैंग्रीन के रोगियों की टाँगें उन्हें काटनी पड़ती हैं। पत्नी एवं पत्नी के प्रेम का अभाव उनके जीवन में रहता है। वैसे एक पुत्र भी है, पर पारिवारिक रिश्ता प्रेमपूर्ण नहीं है। केवल अपने काम में फँसे रहते हैं। इस कारण महेश्वर की पत्नी मालती भी ऊब से भरी रहती है। महेश्वर का जीवन बोझिल, नीरस तथा निर्जीव व्यतीत होता है। उल्लास, अपनापन तथा प्रेम का भी अभाव है।
3. जे० कृष्णमूर्ति बीसवीं शती के महान्
जीवनद्रष्टा, दार्शनिक, शिक्षामनीषी एवं संत थे। वे एक सार्वभौम तत्त्ववेत्ता और परम स्वाधीन आत्मविद थे। वे भारत के प्राचीन स्वाधीनचेता ऋषियों की परम्परा की एक आधुनिक कड़ी थे, जिनमें भारतीय प्रज्ञा और विवेक परंपरा नवीन विश्वबोध बनकर साकार हुई थी।”
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार का उन्नयन करना है। शिक्षा सामंजस्य सिखलाती है। शिक्षा व्यवहार में सुधार लाती है। शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए होती है।
केवल उद्योग या कोई व्यवसाय करना ही शिक्षा या जीवन नहीं है। जीवन बड़ा अद्भुत है, यह असीम और अगाध है, यह अनंत रहस्यों को लिए हुए है, यह एक विशाल साम्राज्य है जहाँ हम मानव कर्म करते हैं और यदि हम अपने आपको केवल आजीविका के लिए तैयार करते हैं तो हम जीवन का पूरा लक्ष्य ही खो देते हैं। कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने और गणित, रसायनशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय में प्रवीणता प्राप्त कर लेने की अपेक्षा जीवन को समझना कहीं ज्यादा कठिन है।
शिक्षा का कार्य है कि वह संपूर्ण जीवन की प्रक्रिया को समझने में हमारी सहायता करे; न कि केवल कुछ व्यवसाय या नौकरी के योग्य बनाए। शिक्षा व्यर्थ साबित होगी, यदि वह इस विशाल और विस्तीर्ण जीवन को, इसके समस्त रहस्यों को, इसकी अद्भुत रमणीयताओं को, इसके दुःखों और हर्षों को समझने में सहायता न करे। शिक्षा का कार्य है कि हम हममें उस मेधा का उद्घाटन करे जिससे हम इन समस्त समस्याओं का हल खोज सकें।
शिक्षा मौलिक सोच विकसित करती है। अनुकरण शिक्षा नहीं है। जिंदगी का अर्थ है, अपने लिए सत्य की खोज और यह तभी संभव है, जब स्वतंत्रता हो, जब अंतर में सतत् क्रांति की ज्वाला प्रकाशमान हो।
एक प्रतिशत प्रेरणा और निन्यानवे प्रतिशत परिश्रम से ही कोई बड़ा कार्य संपन्न होता है। शिक्षा का कार्य क्या है? क्या वह इस सड़े हुए समाज को ढाँचे के अनुकूल बनाने में हमारी सहायता करे या हमें स्वतंत्रता दे। शिक्षा का यह कार्य है कि वह आंतरिक और बाह्य भय का उच्छेदन करे-
यह भय जो मानव के विचारों को, उसके संबंधों और उसके प्रेम को, नष्ट कर देता है। जब हम स्वयं महत्त्वाकांक्षी नहीं हैं, परिग्रही नहीं हैं एवं अपनी ही सुरक्षा से चिपके हुए नहीं है- तभी सांसारिक चुनौतियों का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। तभी हम नूतन विश्व का निर्माण कर सकेंगे। क्रांति करना, सीखना
और प्रेम करना ये तीनों पृथक् पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं है।
तब हम अपनी पूरी शक्ति के साथ एक नूतन विश्व के निर्माण करने की आवश्यकता महसूस करते हैं। जब इनमें से प्रत्येक व्यंक्ति पूर्णतया मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति में होता है, तब हम अवश्य अपना हृदय, अपना मन और अपना समस्त जीवन इस प्रकार के विद्यालयों के निर्माण में लगा देते हैं, जहाँ न तो भय हो, और न तो उससे लगाव फँसाव हो।
बहुत थोड़े व्यक्ति ही वास्तव में क्रांति के जनक होते हैं। वे खोजते हैं कि सत्य क्या है और उस सत्य के अनुसार आचरण करते हैं, परन्तु सत्य की खोज के लिए परंपराओं से मुक्ति तो आवश्यक है, जिसका अर्थ है समस्त भयों से मुक्ति .
3. “नाभादास सगुणोपासक रामभक्त कवि थे। उनकी भक्ति प्रचलित राम भक्ति से थोड़ी भिन्न थी। उसमें मर्यादा के स्थान पर माधुर्यभाव का पुटं था।” यहाँ कबीर और सूर पर लिखे गए छप्पय ‘भक्तमाल’ से संकलित हैं।” कबीर और सूर दो भक्तिधाराओं के कवि रहे हैं। कबीर निर्गुण काल की संतधारा के कवि हैं। सूरदास सगुण रामकाव्यधारा के कवि हैं। कबीर विषयक छप्पय में नाभादास कहते हैं कि जो धर्म में भक्ति से विमुख हो गया, वह अधर्म करता है। बिना भक्ति के किसी धर्म का महत्त्व नहीं। योग, यज्ञ, व्रत, दान और भजन के बिना सब धर्म तुच्छ हैं, छोटे हैं, बौने हैं। हिंदू और तुकों के लिए कबीर की ‘रमैनी’, ‘सबदी’, ‘साखी’ प्रमाण है। इनमें किसी धर्म के साथ पक्षपात नहीं किया गया है। सभी धर्म के हित की बात कही गयी है। संसार की दशा को देखकर ही कबीर ने लिखा है। कबीर ने किसी धर्म की मुँहदेखी नहीं की। कबीर ने वर्णाश्रम के षट्दर्शन की भी प्रशंसा नहीं की।
दूसरे छप्पय में नाभादास ने सूरदास के बारे में लिखा है। सूरदास कृष्ण के भक्त थे। सूर की कविता सुनकर कौन उनकी प्रशंसा नहीं करेगा? सभी प्रशंसा करेंगे। सूर ने कृष्ण की लीला का वर्णन किया है। सूर की कविता में सबकुछ मिलता है। गुण का माधुर्य एवं रूप का माधुर्य सबकुछ भरा हुआ है। सूरदास दिव्य दृष्टि संपन्न कवि थे। वही दिव्यता उनकी कविता में भी रेखांकित की जा सकती है। गोप-गोपियों के अद्भुत संवाद अद्भुत प्रेम दर्शाते हैं। सूर की वाणी में विचित्रता है, माधुर्य है और अनुप्रासों की छटा-सुंदरता।
दो परस्पर विरुद्ध धाराओं के कवि की प्रशंसा में नाभादास सफल हुए हैं।
4. पन्ना के बुन्देला राजा छत्रसाल की तलवार अत्यन्त आक्रामक, कवि भूषण ने बतायी है। तलवार प्रलय के सूर्य की तीव्र किरण की तरह प्रतीत होती है। जब वह म्यान से निकलती है। तलवार अंधकार को चीरने वाली सूर्य किरण की तरह है। यह तलवार शत्रुओं के हाथियों को टुकड़े-टुकड़े कर देती है। यह तलवार तीव्र गति से चलती है। यह तलवार नागिन की तरह शत्रुओं की गर्दन से लिपट जाती है। वह दुश्मन की गर्दन को धड़ से अलग कर देती है। यह कार्य ऐसा प्रतीत होता है मानो वह रुद्र (शंकर) को मुण्ड की माल अर्पित करके उन्हें प्रसन्न करना चाह रही हो। ऐसी तीव्र, तीखी आश्रयदाता राजा छत्रसाल की तलवार है।
5. वीररस के कवि भूषण ने शिवाजी की तुलना जंगलों के राजा शेर से की है। विशाल शरीरधारी जंगली हाथी को शेर मार डालता है। हाथी एक स्थूल जानवर है, जबकि शेर एक फुर्तीला जानवर होता है। हाथी और शेर की लड़ाई में हाथी मारा जाता है। उसी प्रकार शिवाजी वीर, साहसी और पराक्रमी थे। वे मृगराज की तरह पराक्रमी वीर थे।